संत पॉलिकार्प और मसीहियों पर अत्याचार - मसीही इतिहास

 संत पॉलिकार्प और मसीहियों पर अत्याचार



पॉलिकार्प (69–155 ईस्वी), प्रेरित यूहन्ना के शिष्य थे। जब उन्हें रोमी अखाड़े में जलाकर मारने से पहले अंतिम अवसर दिया गया, तब उन्होंने निर्भीकता से कहा, 

“तुम मुझे उस अग्नि से डराते हो जो एक घंटे जलती है और फिर बुझ जाती है, परंतु तुम उस आग से अनभिज्ञ हो जो आने वाले न्याय में अधर्मी लोगों के लिए सुरक्षित है — जो अनंतकाल तक जलती रहेगी। तो फिर देर किस बात की? जो करना है कर डालो। मैंने छियासी वर्षों तक मसीह की सेवा की है, और उन्होंने कभी मुझसे कोई बुराई नहीं की। मैं अपने राजा और उद्धारकर्ता की निंदा कैसे कर सकता हूँ?”



उन्हें सम्राट कैसर को सम्मान देने और यह कहने के लिए विवश किया गया: “नास्तिकों का नाश हो।” (रोमी यह मानते थे कि जो उनके अनेकेश्वरवाद में विश्वास नहीं रखते, वे नास्तिक हैं।) तब पॉलिकार्प ने भीड़ की ओर इशारा किया और कहा, “नास्तिकों का नाश हो।”

जब लोग यह देखते कि स्त्रियाँ और पुरुष अपने विश्वास के लिए अत्यंत धैर्य और साहस के साथ प्राण दे रहे हैं, तो वे आश्चर्यचकित होकर पूछते—“ये कौन लोग हैं जो इतनी निश्चिंतता और विश्वास के साथ मृत्यु का सामना करते हैं?” पॉलिकार्प जैसे शहीदों का ऐसा प्रभावशाली उदाहरण देखने वालों के हृदयों को छू जाता था।

परंतु सम्राट मार्कस ऑरेलियस (121–180 ईस्वी) इससे प्रभावित नहीं हुआ। उसने शहीदों की साहसिक मृत्यु को केवल “हठधर्मिता” और “नाटकीय प्रदर्शन” कहकर तिरस्कृत किया।

तथापि, शहीद एक अत्यंत शक्तिशाली साक्षी बन गए, क्योंकि यूनानी भाषा में "शहीद" (martyr) शब्द का अर्थ ही है—“गवाह।” उनकी मृत्यु के समय की गरिमा और शांति, परमेश्वर की सामर्थ्य का प्रमाण बन गई। बहुत-से रोमी नागरिक, जो इन घटनाओं को देखने हेतु जिज्ञासावश आते थे, वे मसीहियों के साहसी और शांत व्यवहार से चकित होकर लौटते थे।

कलीसिया के अगवे (चर्च फादर्स) टर्टुलियन (165–249 ईस्वी) भी मसीही विश्वास में इसी साक्षीभाव से प्रभावित होकर आये थे। उन्होंने कहा, “हमें मार डालो, यातना दो, दोषी ठहराओ, मिट्टी में मिला दो—तुम्हारा अन्याय ही इस बात का प्रमाण है कि हम निर्दोष हैं। जितना अधिक तुम हमें कुचलते हो, हम उतने ही बढ़ते हैं। शहीदों का लहू कलीसिया का बीज है।” यह बीज पूरे रोमी साम्राज्य में रोपित हो गया। मृत्यु का शांतिपूर्वक सामना करने वाले विश्वासियों की गवाही शब्दों से अधिक बलशाली सिद्ध हुई।

165 ईस्वी में शहीद होने वाले जस्टिन मार्टायर ने कहा, “हम अपने विश्वास का इन्कार नहीं करते, चाहे हमें तलवार से मारा जाए, चाहे क्रूस पर चढ़ाया जाए, हिंस्र पशुओं के सामने डाला जाए, बेड़ियों में बांधा जाए या अग्नि व अन्य प्रकार की यातनाएँ दी जाएँ। यह बात सबको ज्ञात है। उलटे, जितना अधिक हमें सताया और मारा जाता है, उतने ही अधिक लोग यीशु के नाम के कारण विश्वास में आकर परमेश्वर-भक्त बन जाते हैं।”

तीसरी शताब्दी के आरंभ में ओरिजेन ने लिखा, “जितना अधिक राजाओं, शासकों और लोगों ने हर स्थान पर मसीहियों को सताया है, उतना ही अधिक उनकी संख्या में वृद्धि हुई है और वे सामर्थी बने हैं।”

इतिहासकार फिलिप शैफ़ (Historian Philip Schaff) लिखते हैं:

“पहली तीन शताब्दियों में मसीही विश्वास पर होने वाले अत्याचार एक दीर्घकालीन त्रासदी जैसे प्रतीत होते हैं—पहले भयावह संकेत, फिर मूर्तिपूजकों द्वारा क्रूस के धर्म पर निरंतर रक्तरंजित आक्रमण; इन अंधकारपूर्ण दृश्यों के बीच पवित्र पीड़ा की उज्ज्वल झलकियाँ; कहीं-कहीं थोड़े विश्राम; और अंततः एक उग्र और निराशाजनक संघर्ष, जिसमें प्राचीन मूर्तिपूजक साम्राज्य ने जीवन-मृत्यु की लड़ाई लड़ी—परिणामस्वरूप मसीही धर्म की स्थायी विजय हुई। इस प्रकार, कलीसिया का यह रक्त-स्नान मसीही जगत के जन्म का कारण बना। यह क्रूस की पुनरावृत्ति थी, परंतु अंततः पुनरुत्थान के साथ समाप्त हुई।”

शैफ़ यहाँ उस तीन शताब्दियों के शहादत और उत्पीड़न की बात कर रहे हैं, जो रोमियों द्वारा मसीहियों के विरुद्ध किया गया, जब तक कि 313 ईस्वी में सम्राट कॉन्स्टेंटाइन द्वारा एक चमत्कारी मोड़ नहीं आया—जब उसने मसीही धर्म को न केवल मान्यता दी, बल्कि स्वयं उसे अपना लिया। यह कलीसिया के इतिहास की एक अद्भुत और निर्णायक घटना थी।

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