इस्राएल के इतिहास में विदेशी हस्तक्षेप और प्रभाव
अश्शुर का साम्राज्य
अश्शुर का सुरवाती इतिहास
सुलैमान राजा के मृत्यु के बाद ही उत्तरी मेसोपोटेमिया एक साम्राज्य के रूप में उभर के आया। 855-625 ई.स.पू के दौरान अश्शुर ने अपने साम्राज्य को पलिस्तिन की और फैलाना चालू किया। इस्राएल और यहुदा पर इस साम्राज्य ने अनेक प्रकार से प्रभाव डाला।
यह साम्राज्य टिग्रिस नदी के किनारे के क्षेत्र में स्थित था। नुह
का पुत्र शेम के वंश सबसे पहले इस क्षेत्र में आकर बसे थे। समय समय पर अन्य
जनजातिया यहापर आकर बसी और एक मिश्रित जाति उत्पन्न हो गई। इन लोगो को अश्शुरी
बुलाया जाने लगा और उनके प्रदेश का नाम अश्शुर कहलाने लगा। निनवे शहर इस देश की
राजधानी का शहर था। जिसे लगभग 2000 ई.स.पू में स्थापित किया गया था। (देखे उत्प
10:11-12, 22)
अश्शुर के इतिहास को शाही अश्शूरियों के इतिहास अच्छी तरह से
प्रलेखित किया गया है। हम शिलालेखों, राजा
सूचियों, पत्राचार और अन्य पुरातात्विक साक्ष्यों के द्वारा उस इतिहास को
अच्छी तरह से जान पाते है।
अश्शुर साम्राज्य विस्तार और उसके द्वारा इस्राएल
का पतन
1300 ई.स.पू में अश्शुर ने जलद गति से राज्य विस्तार किया और एक आंतर्राष्टीय सत्ता बन गया। ई.स.पू 900 तक पलिस्तीन में अपना प्रभुत्व नहीं बढाया। अनेक प्रांतो को जितने के बाद उसने सीरिया और इस्राएल की ओर रुख किया। शल्मानेसेर तृतीय ई.स.पू 858-824 के समय में राज्य विस्तार के अभियान चलाए। परन्तु उसके समय में अश्शुर पूर्णता विजय पाने में कभी सफल नहीं हुआ। शल्मानेसेर के द्वारा दर्ज किये गए दस्तावेजो से पता चलता है की ई.स.पू 841 में उसने दमास्कस के राजा हजाएल को पराजित किया जो लगभग बारह राजाओ के साथ मिलकर लढ रहा था जिनमें बेन्हदद भी था। (बेन ह्द्द: 1 राजा 20:26,34) जिसके बारे में शल्मानेसेर के शिलालेख में खुदे हुए नक्काशी में मुद्रित पाते है। जिसमें इस्राएल का राजा उसे सुरक्षा के लिये राशी (वार्षिकतय्शुधा रकम) दे रहा है। राजा शल्मानेसेर की मृत्यु के बाद अश्शुर साम्राज्य पर ई.स.पू. 810-783 तक अदाद-निरारी तृतीय ने राज किया। जिसने दमास्कस के राजा हजाएल तृतिय को काबु में कर इस्राएल को उससे राहत दिलाई। अनेक विद्वान मानते है 2 राजा 13:5 में ‘छुड़ानेवाला’ अश्शुर का राजा अदाद-निरारी ही था जो उसके बदले यहोआस से बदले में तय राशी अदा कर रहा था।
ई.स.पू 745-727 में अश्शुर पे तिग्लप्तिलेसेर ने राज्य किया। जिसके अधिनता में इस्राएल पर पहला सीधा और भारी हमला हुआ। उस समय इस्राएल पर मनाहेम राजा था जिसने उसकी अधिनता स्विकार की, जिसके लिए उसने भारी रकम अनामत के रुप में अदा की। (देखे 2 राजा 15:17-20)
जब इस्राएल के राजा पेकह ने सिरिया के राजा पेकह के साथ मिलकर यहुदा पर चढाई की ताकी उसे अपने साथ मिलाकर अश्शुर का सामना करे। यहुदा के राजा आहाज ने अश्शुर से मदद मांगी। जिसका परिणाम यह था की अश्शुर ने इस्राएल और सिरिया पे आक्रमन कर उसका बहुत से भाग पे 732 ई.स.पू. में कब्जा कर लिया। (देखे 2 राजा 15:29, 16:1-9: यश 7:1-9, 8:4 17:1-3)
इस्राएल के राजा होशे ने अश्शुर के विरोध में बगावत की, इसका नतिजा यह था की अश्शर के राजा शल्मानेसेर पंचम (ई.स.पू. 727-722) ने इस्राएल की राजधानी सामरिया को घेर लिया और तीन वर्ष तक घेरे रहा। इसी दौरान उसकी मृत्यु हुई। उसके बाद अश्शुर के राजा सरगौन द्वितीय (722-705) सामरिया को जित लिया और ई.स.पू. 722 उत्तरी राज्य इस्राएल का पूर्णतः पतन हो गया। अश्शुर के राजा ने इस्राएल के लोगो को बंदि बना कर उन्हे अपने साम्राज्य में बिखरा दिया। और बेबिलोन, कुता, अब्वाहमात और सपवैन्म से लोगो को वहाँ लाकर बसा दिया। होशे आमोस आदी भविष्यवक्ताओ ने इसके बारे में सालो पहले ही भविष्यवाणी की थी। ( देखे होशे 10:5-8. आमोस 7:17)
अश्शुर और दक्षिणी राज्य यहुदा
जिस समय इस्राएल का पतन हुआ यहुदा के राजा आहाज अश्शुर के अधिन हो
गया और उसे भारी कर देने लगा। (यश 7:17; 8:5-8;
20: 1-6)
यहुदा के राजा हिजकिय्याह ने उसके उसे कर देने से मना किया फलस्वरुप अश्शुर के राजा सन्हेरीब (ई.स.पू.705-681) सन्हेरिब यरुशलेम को घेरा (ई.स..पू 701) इसके बदले हिजकिय्याह से भारी रकम दी परंतु सन्हेरिब ने उसे धोका दिया। हिजकिय्याह ने परमेश्वर से सहायता मांगी। जिसका परिणाम यह था की अश्शुरी सेना का आश्चर्यजनक रिति से नाश हुआ। सन्हेरीब की नीनवे हत्या कर दी गई।
इसके बाद उसका पुत्र एसर्हद्दोन (ई.स.पू 681-669) उसके स्थान पे राजा हुआ। उसने यहुदा के राजा मनश्शे पे हमला किया और बंदी बनाकर बेबिलोन ले गया।
अश्शुर साम्राज्य का अस्त
उसके स्थान पर अस्शुरबनिपाल अश्शुर का राजा हुआ (ई.स.पू.669-627)
। जिसके कार्यकाल में अश्शुर सामर्थ्यशाली बना। परन्तु उसके मृत्यु के बाद अश्शिर
का राज्य कमजोर होने लगा। ई.स.पू. 626 बेबिलोन राज्य का उदय हुआ। जिसने अश्शुर को
पराजित कर दिया। ई.स.पू. 612 में नीनवे बेबिलोन के जीत लिया गया। नहुम ने इसे
परमेश्वर का अश्शुर के विरोध न्याय के रिप में प्रचार किया। (नहुम 1:1) अगले तीन
साल में अश्शुर साम्राज्य का पूर्णतः पतन हो गया।
बेबीलोन का साम्राज्य
बेबोलोन आरंभ
बेबीलोन और बाबेल यह दोनो नाम (उत्प 10:10, 11:9) इब्रानी शब्द ‘बाबेल’ लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘गडबड’। उत्प 11 अध्याय में शिनार नामक देश में स्थित यह एक स्थान नजर आता है जहाँ पर एक उन्नत, संस्कृति और सभ्यता का उदय होता हुआ नजर रहा था। परंतु वहाँ पर परमेश्वर ने लोगो के भाषा में गडबडी उत्पन्न की; जिसकी वजह अनेक भाषाँए उत्पन्न होकर लोग बँट गए और पृथ्वी पर फैल गए। इसीलिए वह नगर ‘बाबेल’ कहलाने लगा। और बाद में शिनार देश बेबीलोन नाम से भी जाना जाने लगा।
बेबीलोन साम्राज्य का उदय
बेबीलोन साम्राज्य मेसोपोटोमिया के आसपास फरात औत टिग्रिस नदी का ही क्षेत्र था। अश्शुर और बेबिलोन दोनो राज्य एकदुसरे के आसपास ही थे, और समय दर समय उन में टकराव होता रहा।
सबसे पहले सुमेरियन लोगो ने यहाँ पर 2000 ई.स.पू. में आकर वस्ती की और एक सभ्यता की नींव डाली। इस्राएली कुलाधिपतियों के समय पर एमोरी राजघराणे इस क्षेत्र पे राज किया। हम्मुराबी (ई.स.पू.1792-1750) ने बेबीलोन अपना राज्य स्थापित किया। जिसने अनेक विजयों हासिल कर साम्राज्य को अधिक मजबुत बनाया। उसने अपने राज्य के लिये मजबुत कानुन व्यवस्था बनाई जो उस समय काफी प्रचलित हुई थी। उसने दीवानी, फौजदारी, सामाजिक, और व्यापर संबंधी जो नियम बनाये वे पहले से अधिक मजबुत और उन्नत थे।
1595 ई.स.पू में बेबिलोन पर हित्तीयो ने राज्य किया, उसके बाद कसाईट जनजाति ने सिन्हासन काबिज कर दिया। कसाईट राजवंश ने बेबीलोन पर 1350 ई.स.पू. तक राज किया। यह एक शांति का काल था।
अस्थिर मध्यकाल अश्शुर की अधीनता
ई.स.पू. 1350 के बाद इस साम्राज्य ने इजिप्त और अश्शुर के साथ संघर्ष का सामना किया। 1160 ई.स.पू में कसाईट राजवंश का राज्य एलामाइट राजवंश के द्वारा समाप्त हुआ। इसके बाद लगभग नबुकदनेस्सर प्रथम ने एलाम से राज्य हतिया लिया। इसके बाद बेबीलोन दो शताब्दि तक बाढ, आकाल, अरामिन जनजातियो का आक्रमण, दक्षिण से कसदियो के आगमन ने त्रस्त कर दिया। इसे बेबीलोन के इतिहास का अंधकार युग कहा जाता है।
अश्शुर साम्राज्य के समय पर अश्शुरी राजा शालाम्नेसेर तृतीय ने बेबिलोन को ई.स.पू. 851 में अपने अधिन कर दिया। इसके बाद बेबीलोन साम्राज्य ई.स.पू 705 तक अश्शुर के के अधिन जहा, इस बीच कई बार बेबीलोन के राजाओ ने बगावत की लेकिन सर उठा न पाए।
बेबीलोन का सुवर्ण काल और विजय शाली साम्राज्य
उभर कर आना
ई.स.पू में अश्शुर के साम्राज्य के विरोध में बेबीलोन, यहुदा ने अश्शुर के विरोध बगावत की, परिणाम स्वरुप सन्हेरिब ने जवाबी हमला किया और तत्कालिन बेबिलोन के राजा मेरोदाख-बलादान को एलाम में भागना पडा। यह घटना हिजकिय्याह राजा के समय की है, जब उसने अपने दुतो को उसके पास भेजा था। (2 राजा 20:12-19) ई.स.पू 689 में सन्हेरीब को उसके पुत्र डाला (2 राजा 19:37) ई.स.पू 627 में अस्शुरबनिपाल का मृत्यु के साथ ही अश्शुरी साम्राज्य का अस्त हो गया और बेबिलोन साम्राज्य पर नबोपोलस्सर जो कसदी था राज्य आरम्भ किया। ई.स.पू 612 में उसने अश्शुरी साम्राज्य को पूर्णता अपने अधीन कर लिया।
यहुदा राज्य और बेबीलोन
605 ई.स.पू में बेबीलोन का विजयी साम्राज्य और आगे बढता गया, नबुकदनेस्सर
के नैतृत्व में इजिप्त को हरा के अपने अधीन कर दिया। इसी दौरान यहुदा भी बेबीलोन
के अधीन हो गया। और यरुसलेम में रहने वाले उच्च परिवार के जवानो को अपने साथ बंदी
बना कर ले गया। यहुदा राज्य ने 3 वर्ष बाद फिर बगावत की नबुकद्नेस्सर ने इसे भी
दबा डाला और कुछ लोगो को बंदी बना कर ले गया। सिदकिय्याह राजा के समय फिर से एक
विद्रोह हुआ, इसबार बेबीलोन ने यरुशलेम पर जोरदार प्रहार किया, नगर
जला दिया गया, विद्रोह करनेवालो कि हत्या की गई और सभी लोगो को बंदी
बना कर ले गया।
अपने शासन के शिखर पर नबुकदनेस्सर अपने विजयी अभियान, निर्माण आदी के कारण घमण्ड करने लगा। जिससे परमेश्वर उससे क्रोधित हुआ और उसे शिक्षा दी जिसका वर्णन दानिएल के चौथी अध्याय में है।
अस्त
बेलशस्सर (दानिएल 5:1-30) राजा के मृत्यु के साथ 539 ई.स.पू में
बेबीलोन साम्राज्य का अस्त हुआ। जिसे मेदी पारस के राजा ने मार डाला। बेबीलोन
साम्राज्य की जगह मेदी और पारस साम्राज्य ने ली।
मादी-फारस (पर्शियन) साम्राज्य
परिचय और प्रारंभिक इतिहास
यह अनेक राज्यो से बना
एक संघटित साम्राज्य था। जिसकी सीमा आशिया मायनर से लेकर भारत के सिंधु नदी तक और दक्षिण
रशिया से लेकर मिस्र तक थी। इतिहास में मादी फारस ने बेबिलियोन को हराकर अपना
वर्चस्व स्थापित किया और इस साम्राज्य का अंत ‘सिकंदर महान’ जो
ग्रीक साम्राज्य का राजा था उसने किया।
प्राचिन समय में यह आज के
इराण का क्षेत्र था। जिसमें राज्य जुडते गये और इसका विस्तार होता गया। उत्पत्ती
किताब के समय में यह ‘एलाम’ नाम से जाना जाता था। (उत्प 14:1) संभवता फारस ही
एलाम का दुसरा नाम था। फारस और मादी देश दोनो ने मिलकर बाद में एक महासत्ता
स्थापित की।
ई.स.पू. 3000 में लोग इस
क्षेत्र में आकर बस गये थे। ई.स.पू. 1200 के आसपास एलोमी संस्कृति अपने अग्रस्थान
पे थी। टायग्रेस नदी के क्षेत्र में उन्होने अपना अधिकार स्थापित किया। ई.स.पू.
1050 तक इस राज्य का अंत हुआ और इस क्षेत्र में अनेक कबिलों ने प्रवेश किया। इन्ही
कबिलों में एक कबिले के अगुवे ने ई.स.पू. 700 में एक छोटे अनशान राज्य की स्थापना
की। अक्युमनिस जो कुस्रु राजा का पर दादा था राज्य किया। उसका यह राज्य मादा फारस
साम्राज्य की सुरवात थी। और अक्युमनिस से सिकंदर महान के समय को ‘अक्युमनिस
का समय’ भी कहा जाता है।
पवित्र शास्त्र के समय का फारस साम्राज्य
ई.स.पू. 558 में कुस्रु द्वितिय अपने पिता के जगह राजा बना। उसने के ही समय पर फारस साम्राज्य का विस्तार हुआ। उसने कई छोटे राज्य को जित कर राज्य की सीमा को बढाया। ई.स.पू. 550 में क्रुस्रु ने मादा के राजा अस्त्यगेस के विरुध्द में बगावत की और उसे बंदी बना लिया। इससे उसका साम्राज्य और भी बढता गया: वह आशिया मायनर से हल्य्स नदी तक फैल गया। इस घटना के बाद मादी फारस का मजबुत मित्र बन गया और साम्राज्य मादी फारस के नाम से जाना जाने लगा। ई.स.पू. 539 में कुस्रु ने बेबिलोन पर बढी विजय हासिल की और बेबिलोन साम्राज्य भी उसके अधिनता में आ गया। कुस्रु राजा की मृत्यु 530 ई.स.पू. में हुई और उसके स्थान पर कम्बीसस द्वितिय (ई.स.पू. 530-522) राजा हुआ। जिसने ई.स.पू 525 में मिस्र पर विजय प्राप्त की। उसके बाद उसके पुत्र दारा प्रथम ने साम्राज्य को भारत तक फैलाया। उसने ग्रिक राज्य को भी जितने की कोशिश की मात्र ई.स.पू. 490 में मॅरॉथान में ग्रीक से युध्द हार गया। साम्राज्य काफी बढा होने के कारण उस पर नियंत्रण करना भी मुश्किल होता जा रहा था। दारा प्रथम के बाद क्षयर्ष ई.स.पू. 486-465 तक राज्य किया जिसके बारे में हम एस्तेर की किताब में पढते है। उसके बाद अर्तक्षयर्ष राजा ने ई.स.पू. 465 से 425 के दौरान राज किया। फारस साम्राज्य का अंतिम राजा ‘दारा द्वितिय’ था जिसने ई.स.पू. 338-330 जिसे सिकंदर महान ने मिस्र में लढाई में ई.स.पू. 333 में हराकर मादी फारस साम्राज्य का अंत कर दिया।
राजकीय प्रगति और प्रभाव
फारसी साम्राज्य सभ्यता
के इतिहास और विकास के लिए महत्वपूर्ण है। धर्म, कानून, राजनीति
और अर्थशास्त्र पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ा। प्रभाव यहूदियों, बाइबिल, यूनानियों
के साथ संपर्क और सिकंदर महान के फारसियों के विचारों और वास्तुकला के समावेश के
माध्यम से आया।
राजनीति के हिसाब से फारस का साम्राज्य जगत के इतिहास में बहुत ही संघटित साम्राज्य था। दारा प्रथम के समय पर (ई.स.पू. 522-486) पुरा साम्राज्य 20 बडे क्षेत्रो में विभाजित था। हर क्षेत्र उपविभाग में प्रांत रुपी विभागो में बँटे थे। और यहुदा भी उसमें से एक प्रांतरुपी विभाग था। हर क्षेत्र फारसी साम्राज्य के जिम्मेदार था। यदी अच्छे से साम्राज्य चलाना है तो संचार व्यवस्था भी अच्छी होनी चाहिए, इसीलिये पुरे साम्राज्य को रास्तों से जोडा गया। यही कारण था की साम्राज्य अच्छी रितिसे चलाया जाने लगा। फारस ने लोगों को एक दूसरों के साथ मिले जुले रहने के लिये प्रोस्ताहीत किया। इसके कारण लोगों में व्यापार, वस्तुओं का आदान प्रधान मीलों तक बढा। जिससे साम्राज्य धन समृध्दी में अधिक बढा और लोगो में एक बढे साम्राज्य का भाग होने की राष्ट्र भावना जागृत हुई। इसी समय आर्थिक लेन देन के लिए चलन व्यवस्था जो सिक्कों के रुप में पुरे साम्राज्य बडे स्तर पे इतेमाल हुआ। यह सिक्के फारस साम्राज्य, उसके सामर्थ्य, और विशालता को प्रकट करने काम करते थे। साम्राज्य के कायदे कानुन सबसे उच्च थे तथापि स्थानिय राज्यो को उनके स्थानिक कायदो और धार्मिक व्यवस्था का पालन करने की अनुमति थी। इसीलिए यहुदियो को यहुदी कायदे पालन करने की अनुमति मिली।
फारस का साम्राज्य
में यहुदा का बंदिवास से मुक्तता और पुनःर्वसन
70 साल का बंदिवास
ई.स.पू. 586 में नबुकदनेस्सर इस यहुदा राज्य का अंत कर दिया था, तथा
यहुदा राज्य के लोगो को बंदी बनाकर बेबिलोन साम्राज्य में ले जाया गया था। बंदिवास
के समय इस्राएल को अन्यजातियों के कारण अनेक सताव और अपमानों का सामना करना पडा। (भजन 137
जरुर पढे)
यशया, यिर्मया, यहेज्केल जख-या जैसे
भविष्यवक्ताओ ने बंदीवास के पहले,
मध्य और लौट आने के बाद
महत्त्वपूर्ण संदेश दिए और लोगो को बताया की उनकी यह स्थिति उनके पाप के कारण है, और
जब परमेश्वर के ओर मुडेगे परमेश्वर उन पर अनुग्रह करेगा और अपने देश या भुमि में
लौटाकर ले आयेगा।
बंदिवास के परिणाम
इस्राएल देश-विदेश में स्थलांतरित हुए, जिससे उनका अन्यजातियो के साथ संपर्क बढा, नबुकद्नेस्सर ने जब यहुदियों को बंदि बनाया, उसने जवान प्रतिभावंत और निपुन लोगो को अलग कर उन्हे प्रशिक्षित किया। (दानि 1 अ.) देशविदेश से बंदी बनाए गए या स्थलांतरित किए लोगो बेबिलोन साम्राज्य (बाद में जो भी साम्राज्य हुए उन्होने यही नीति अपनाई) की भाषा, देश के प्रति और राजा के प्रति निष्ठा आदि को सिखाया गया। उनके प्रतिभा, ज्ञान और कौशल्य के अनुसार उन्हे राज भवन में पद दिए गये। उनमे दानिएल, शद्रख, मेशक, औए अबिद्नगो भी थे जिनका वर्णन हम दानिएल के किताब में पाते है। परन्तु यह वह समय था जब यहुदी तथा इस्राएलीयो ने परमेश्वर के प्रती अपनी गहरी आस्था दिखाई, और अपने यहुदी संस्कृति को कठोरता से पालन करने के लिए समर्पित हुए। जिसके लिए उन्हें उत्पिडना और सताव का भी सामना करना पडा।
प्रशासकिय कामकाजो में, सैन्य आदी में इस्राएलीयो को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुए थे। बहुत से यहुदी विदेश में घुल-मिल गये, इसी समय इस्राएली अनेक देशो में फैल गये और इस कदर बस गये की फारस के साम्राज्य में कुस्रु राजा के द्वारा स्वदेश लौटने के अनुमति के बाद भी विदेशों में ही बस गये। व्यापार आदि के कारण बहुत से यहुदी और इस्राएली धनी बन गए थे। नये नियम के समय में हम प्रेरितों के काम में 2 अध्याय में, पौलुस की सुसमाचार की यात्रा में, याकुब, पतरस के पत्र के सुरवात में सम्भवता हम इन्ही यहुदी और इस्राएलीयों का उल्लेख पाते है जो बंदिवास के समय अन्यत्र बस गए थे। ( संदर्भ प्रेरित 2:9-12, याकुब 1:1, 1 पत 1:1)
यहुदी इस्राएली लोगो ने
आंतराष्ट्रिय राजनीति, अर्थव्यवस्था और सुरक्षाव्यवस्था पर उस समय गहरा
प्रभाव छोडा यह हमें एज्रा नहेम्या,
एस्तेर, दानियेल
की पुस्तक तथा तत्कालिन इतिहास के द्वारा पता चलता है।
बंदिवास से लौट आना
सर्वसाधारण रिति से यह माना जाता है की यहुदा बेबिलोन के बंदिवास में लगभग 70 साल तक रहा, जिसकी भविष्यवाणी हम यिर्मया के किताब में पाते है। यिर्मया 25:11, यशया भविष्यवक्ता के द्वारा परमेश्वर ने प्रकट किया की, कुस्रु राजा के समय में यहुदा को बंदीवास से बाहर ले आएगा और मंदिर का पुनःनिर्माण किया जाएगा। और परमेश्वर के वचन के अनुसार सबकुछ हुआ।
यहोयाकीन (ई.स.पू.609-598) के समय नबुकदनेस्सर ने यहुदा पर चढाई की और विजय पाकर बहुत से लोगो को अपने साथ बंदी बनाकर ले गया। और ई.स.पू. 586 में यहुदा पूर्णता नष्ट कर दिया गया। औए यहुदियों बंदि बनाकर, स्थलांतरीत किया गया। (संदर्भ 2 राजा 24-25 अध्याय)
जब कुस्रु ने बेबिलोन पर विजयी हासिल की उसने यहुदियो को अनुमति दी की वे अपने यहुदा प्रांत के भुमि लौट सकते है और मंदिर का पुन:निर्माण कर सकते है। (एज्रा 1:1-4) जरुबाब्बेल और योसादाक आदी के अगुवाई में पहला जत्था यरुशलेम लौट आया। विदेश में बसे हुए और धनवान यहुदियों ने उन्हे धन के द्वारा मदत की ताकी वे निर्माण कार्य पुर्ण करे। मंदिर का काम आरंभ हुआ परंतु स्थानिक विरोध कारण पुर्ण न हो पाया।
इसी समय हाग्गै, जकर्याह भविष्यवक्ताओं ने भविष्यवाणी की और लोगो को उत्साहीत किया। और एज्रा के अगुवाई में दुसरा जत्था यरुशलेम में प्रवेश पाया और मंदिर और नगर निर्माण काम विरोध के बावजुद आरंभ हुआ। नहेम्या के अगुवाई तिसरा जत्था यरुशलेम में आया। माना जाता है की नहेम्या बंदिवास से लौटने के बाद यहुद प्रांत (यहुदा) का प्रथम गवर्नर अधिकारी था। मन्दिर का ई.स.पू 536 में आरंभ होकर 516 ई.स.पू. में समाप्त हुआ।
इस प्रकार मादी और फारस (पर्शियन) साम्राज्य के अधिन इस्राएली फिरसे अपने वचनदत्त भुमि में लौट आए। उन्हे अपने प्रांत में यहुदी व्यवस्था के अनुसार कायदो का पालन करने और संस्कृति का पालन करने की पूर्णतः छुट दी गई थी। एज्रा और नहेम्याह की किताब में हम पाते है की किस प्रकार से उन्होने यहुदी समाज में धार्मिक पुनःनिर्माण किया।
मादी फारस क साम्राज्य लगभग दो सौ साल तक बना रहा परन्तु पवित्र
शास्त्र में हम लगभग सौ साल का ही इतिहास पाते है।
बेबिलोन के बंदिवास से बंदिवास से लौट आने तक की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का काल-क्रम
ई.स.पू 609 यहोयाकीन के समय प्रथम बंदिवास
ई.स.पू 586 यहुदा राज्य का पुर्णतः पतन
ई.स.पू 539 कुस्रु राजा की अनुमति से यहुदा की
बंदिवास मुक्तता और लौटने की अनुमति
ई.स.पू 536-516 मंदिर का पुनःनिर्माण
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